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यत्रा॑ च॒क्रुर॒मृता॑ गा॒तुम॑स्मै श्ये॒नो न दीय॒न्नन्वे॑ति॒ पाथ॑: । प्रति॑ वां॒ सूर॒ उदि॑ते विधेम॒ नमो॑भिर्मित्रावरुणो॒त ह॒व्यैः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yatrā cakrur amṛtā gātum asmai śyeno na dīyann anv eti pāthaḥ | prati vāṁ sūra udite vidhema namobhir mitrāvaruṇota havyaiḥ ||

पद पाठ

यत्र॑ । च॒क्रुः । अ॒मृताः॑ । गा॒तुम् । अ॒स्मै॒ । श्ये॒नः । न । दीय॑न् । अनु॑ । ए॒ति॒ । पाथः॑ । प्रति॑ । वा॒म् । सूरे॑ । उत्ऽइ॑ते । वि॒धे॒म॒ । नमः॑ऽभिः । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । उ॒त । ह॒व्यैः ॥ ७.६३.५

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:63» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:5» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - परमात्मा उपदेश करते  हैं कि (मित्रावरुणा) हे अध्यापक तथा उपदेशको ! (वाम्) तुम्हारी कृपा से हम (नमोभिः) नम्र भावों से (उदिते, सूरे) सूर्य्य के उदय होने पर उस परमात्मा की (विधेम) उपासना करें, जो (श्येनः) विद्युत् के (न) समान गतिवाले पदार्थों की न्याई (दीयन्) शीघ्र (पाथः, अन्वेति) पहुँचा हुआ है और जिसको (गातुम्) प्राप्त होने के लिये (अमृताः) मुक्त पुरुष (चक्रुः) मुक्ति के साधन करते हैं (अस्मै) उस स्वतःप्रकाश परमात्मा के लिये (वाम्) तुम लोग (प्रति) प्रतिदिन प्रातःकाल  उपासना करो (उत) और (हव्यैः) हवन द्वारा अपने स्थानों को पवित्र करके (यत्र) जिस जगह मन प्रसन्न हो, वहाँ प्रार्थना करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा अध्यापक तथा उपदेशकों को आज्ञा देते हैं कि तुम लोग प्रातःकाल उस स्वयं ज्योतिःप्रकाश की उपासना करो, जो विद्युत् के समान सर्वत्र परिपूर्ण है और जिस ज्योति की प्राप्ति के लिये मुक्त पुरुष अनेक उपाय करते रहे हैं, तुम लोग उस स्वयंप्रकाश परमात्मा की प्रतिदिन उपासना करो अर्थात् प्रातःकाल ब्रहायज्ञ तथा देवयज्ञ करके ध्यान द्वारा उसको सत्कृत करो ॥५॥ परमात्मा के लिये जो यहाँ “श्येनः” की उपमा दी है, वह उसके सर्वत्र परिपूर्ण होने के अभिप्राय से है, शीघ्रगामी होने के अभिप्राय से नहीं। निरुक्त एकादश अध्याय में श्येन के अर्थ इन्द्र किये हैं और इन्द्र तथा विद्युत् यह एकार्थवाची शब्द है, इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है कि “शंसनीयं गच्छतीति श्येनः”=जो सर्वोपरि गतिशील हो, उसका नाम “श्येन” है ॥ और जो कोई एक लोग श्येन के अर्थ “बाज” पक्षी के करते हैं कि बाज बहुत शीघ्र एक स्थान से उड़कर स्थानान्तर को प्राप्त हो जाता है, इसी प्रकार यह भौतिक सूर्य्य भी उसी की न्याई शीघ्रग्रामी है, या यों कहो  कि गृध्र=“गिद्ध” पक्षी के समान वेगवाला है, यह अर्थ सायणाचार्य्य ने किये हैं, हमारे विचार में ऐसे अर्थ करने ही से वेदों का महत्त्व लोगों के हृदय से उठ रहा है। जब निरुक्तकार ने श्येन के अर्थ स्पष्टतया इन्द्र के किये हैं तो फिर यहाँ गिद्ध तथा बाज आदि पक्षियों का ग्रहण करना कैसे संगत हो सकता है, इसी प्रकार निरुक्तादि प्राचीन वेदाङ्गों का आश्रय छोड़कर सायणादि भाष्यकारों ने अनेक स्थलों में भूल की है, जैसा कि इसी मन्त्र में “सूर” के अर्थ भौतिक सूर्य्य करके मन्त्रार्थ यह किया है कि इस भौतिक सूर्य्य के गमनार्थ देवताओं ने आकाश में सड़क बनाई है, जिसमे वह श्येन तथा गृध्र से भी शीघ्र चलता है, इसलिये उसके उदयकाल में नमस्कारों से उसकी वन्दना करनी चाहिए। इसका उत्तर यह है कि जब इसी सूक्त के दूसरे मन्त्र में उस शक्ति को इस भौतिक सूर्य्य का चालक कथन किया गया है और अनेक स्थलों में यह कथन किया गया है कि उसी शक्ति से यह सूर्य्य उत्पत्र होता है, जैसा कि “चक्षोः सूर्यो अजायत” ॥ यजु॰ ३१।१२=उसी चक्षुरूप शक्ति से सूर्य्य उत्पन्न हुआ, फिर उक्त अर्थ के विरुद्ध यहाँ भौतिक सूर्य्य की उपासना सिद्ध करना वेदाशय से सर्वथा विरुद्ध है ॥५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - परमात्मोपदिशति–(मित्रावरुणा) हे अध्यापकोपदेशकौ ! (वाम्) युवयोः कृपया (नमोभिः) नमस्कारैः (उदिते, सूरे) उषाकाले परमात्मोपासनां (विधेम) करवाम, परमात्मा (श्येनो, न) विद्युदिव (दीयन्) शीघ्रमेव गच्छन् (पाथः) पन्थानं (अन्वेति) गतः, अन्यच्च यं (गातुम्) गन्तुं (अमृताः) मुक्तपुरुषा मुक्तिसाधनानि (चक्रुः) कृतवन्तः, अन्यच्च (अस्मै) अस्य प्राप्तये (प्रति) प्रतिदिनं सन्ध्यावेलायामुपासनां (हव्यैः) हवनद्वारेण स्वस्वस्थानानि सम्मार्ज्य (उत) अथवा (यत्र) यस्मिन् स्थाने भवन्मन ईश्वरे संलग्नं भवेत् तत्रैवोपासनं करवामहै ॥५॥